Wednesday 24 October 2012

खुशी (सुख) की खोज!

हरिवंश
फरवरी के दूसरे सप्ताह (वर्ष 2012) में एक अंतरराष्ट्रीय सर्वे आया। इसी सुख और दुख को लेकर। इप्सोस ग्लोबल सर्वे। 24 देशों के 18000 लोगों से बातचीत कर। सर्वे के अनुसार-हंगरी, दक्षिण कोरिया, रूस, स्पेन और इटली दुनिया के सबसे दुखी देश हैं। याद रखिए ये सभी विकसित देश हैं या कभी (विकसित) रहे हैं, संपन्न देश। गरीब देशों के मुकाबले आज भी इनके पास बेशुमार दौलत है। स्पेन, इटली अब आर्थिक मुसीबतों से घिरे हैं। पहले विकसित, शिक्षित और संपन्न रहे हैं। अब भी हैं।

सर्वे से पता चला है, दुनिया में पांच सबसे खुशहाल देश हैं-इंडोनेशिया, भारत, मैक्सिको, ब्राजील एवं तुर्की। गौर कीजिए, पांच सबसे दुखी देशों के मुकाबले आज भी ये मुल्क पीछे हैं। आर्थिक विकास के मौजूदा माडल के पैमाने के तहत-शिक्षा, इंफ्रास्ट्रक्चर, प्रति व्यक्ति आय, बिजली, सामाजिक सुरक्षा, जीडीपी के मापदंडों पर। सबसे दुखी देशों में इटली और स्पेन तो वर्ष-दो वर्ष से आर्थिक चुनौतियों से घिरे हैं। इनके आर्थिक-सामाजिक विकास का लंबा अतीत रहा है। दक्षिण कोरिया और रूस तो संपदा, तकनीक एवं आर्थिक विकास में दुनिया के श्रेष्ठ मुल्कों में से हैं। फिर भी सबसे दुखी हैं।

सर्वे की तीसरी श्रेणी भी है। वैसे देश भी हैं, जो जी रहे हैं, जहां न खुशी है, न गम. जीने में कोई रस नहीं, पर जीये जा रहे हैं। कहीं गहरा गम है। उदासी है। सूनापन है। ऐसे कौन मुल्क हैं? अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और दक्षिण अफ्रीका। अंतिम मुल्क दक्षिण अफ्रीका को छोड़ दें, तो अन्य चार देश (अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी) आज भी दुनिया के लिए अपने विकास, जीवन शैली, प्रगति के कारण रोल माडल हैं। ये नहीं होते, तो आज दुनिया यहां न होती।

इनका स्वर्णिम अतीत, आधुनिक संपन्नता, श्रेष्ठता (एक्सीलेंस), शासनकला आज भी दुनिया के अन्य देशों के लिए श्रेष्ठ मापदंड हैं। विकास-आधुनिकता प्रगति का पैमाना। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में श्रेष्ठता मापने के पैमाने या मापदंड भी इन मुल्कों की व्यवस्था, जीवन या कार्यप्रणाली (सिस्टम) से ही उपजते-निकलते हैं। इन्होंने दुनिया को गुलामी दी, तो मानव समुदाय की स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व की आवाज भी इनकी गलियों से ही गूंजे। आज भी इन देशों की संपन्नता, श्रेष्ठ जीवन शैली गरीब देशों के लिए ईर्ष्या के प्रसंग हैं। इंद्रियभोग या भौतिक भोग की दुर्लभ चीजें तो इन्हीं मुल्कों की सरहदों में सीमित हैं।

बेस्ट हेल्थ तकनीक, सर्वश्रेष्ठ नागरिक व्यवस्था, सुंदर, भव्य व साफ-सुथरे शहर। सृजन या शिक्षा में लगी दुनिया की सर्वश्रेष्ठ-बेहतरीन संस्थाएं। एक पंक्ति में कहें, तो आज दुनिया में स्वर्ग की जो भी कल्पना है, वह तो इन्हीं चार मुल्कों में है। फिर भी ये मुल्क खुश नहीं हैं। इसी सर्वे में गरीब भारत सबसे खुशहाल देशों में है। क्यों और कैसे?

दुनिया की सर्वाधिक मशहूर पत्रिका द इकनामिस्ट (25 फरवरी 2012) में खुशी मापने (मेजर्स आफ वेलबीइंग) पर टिप्पणी है। दुनिया में आर्थिक मंदी के बावजूद दुनिया खुशगवार हुई है। संसार में जो वित्तीय संकट हुआ, उसके बाद दुनिया खुश है। संकट के पहले की अपेक्षा। यानी साफ है कि आर्थिक कारण मनुष्य या समाज की खुशी पर निर्णायक असर नहीं डालते। यह तथ्य या निष्कर्ष सर्वे पर आधारित है। 24 देशों के 19 हजार वयस्क लोगों से हुई बातचीत के आधार पर। 2007 (विश्व आर्थिक संकट के ठीक पहले) में इसी सर्वे (इप्सोस सर्वे) में 74 फीसदी लोगों ने खुद को खुश बताया था। अब (विश्व आर्थिक संकट के बाद) 77 फीसदी लोग खुद को खुश बता रहे हैं।

अब समाज की खुशी मापने के अलग-अलग सर्वे विकसित हो गये हैं। वेलबीइंग (बेहतरी) या लाइफ सटिस्फैक्शन (जीवन संतुष्टि) या द वर्ल्ड वैल्यूज सर्वे (दुनिया के मूल्य सर्वेक्षण) हो रहे हैं। पर इस ताजा सर्वे में खुशी में कमी (पहले सर्वे की तुलना में) सबसे अधिक उन देशों में हुई, जो आर्थिक रूप से सबल देश हैं। इंडोनेशिया, ब्राजील और लगातार दुखी रहनेवाला देश रूस में।

राजनीति विज्ञान की अवधारणा है कि समाज में जैसे-जैसे समृद्धि आती है, संपन्नता आती है, लोग खुशहाल होते हैं। यह भी माना जाता है कि किसी एक देश में प्रतिव्यक्ति आमद 2500 डालर प्रतिवर्ष की सीमा से बढ़ जाती है, तो वह खुशहाल हो जाता है। इस अवधारणा के तहत खुशहाल देश का मिजाज (द स्पिरिट लेवल) बेहतर होता है। 2009 में इस शीर्षक के तहत, द स्पिरिट लेवल चर्चित किताब भी आयी। इसके अनुसार, पहले से संपन्न या औसत समृद्धि वाले लोगों के यहां अगर आमद कम भी बढ़ती है, तो वे खुश रहते हैं। अनेक विशेषज्ञ यह मानते हैं कि एक सीमा के बाद आर्थिक विकास या निजी जीवन में पैसे की आमद या समृद्धि अर्थहीन है।

दक्षिणपंथी राजनेता, जैसे ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरान और फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ने नये प्रोजेक्ट शुरू किये हैं ‘ग्रॉस नेशनल हैपीनेस’. समग्र राष्ट्रीय खुशी के अध्ययन के लिए। पर इप्सोस अध्ययन ने साबित किया है कि ये सबसे अधिक खुश-समृद्ध देश नहीं हैं, जैसे सामान्य लोग मान लेते हैं। पर गरीबी और मध्य आय वाले देश अधिक खुशहाल हैं, जैसे इंडोनेशिया, भारत और मैक्सिको सबसे खुशहाल देश हैं, इस सर्वे के अनुसार।

खुशी (हैपीनेस) की अवधारणा

इसी द इकानामिस्ट पत्रिका में (14 मई 2011) हैपीनेस (खुशी) पर एक और किताब की समीक्षा छपी। पुस्तक का नाम है, "फ्लोरिश"

इस किताब के लेखक मार्टिन इपी सेलिगमैन, अमेरिकी साइकालाजिकल एसोसिएशन (अमेरिकी मनोवैज्ञानिक संघ) के पूर्व अध्यक्ष हैं। वह कहते हैं कि अब खुशी (हैपीनेस) की अवधारणा दुनिया की राजनीति के सार्वजनिक एजेंडा के बीच (सेंटर स्टेज) में है। यह सरकारों का काम है कि वे अपने नागरिकों को खुश रखें। पहले यह माना जाता था कि खुशी, निजी प्रसंग है।

इस मन:स्थिति का होना-न होना, व्यक्ति सापेक्ष (Individual relative) है। यह सामूहिक या सार्वजनिक एजेंडा नहीं हो सकता। राज्य सत्ता या सार्वजनिक जीवन का निजी खुशी से क्या लेना-देना? परहित सुखाय, निजी जीवन दर्शन हो सकता है, पर सरकार स्तर पर यह कैसे संभव है? बौद्धिकों या विद्वानों की रुचि आर्थिक विकास दर में है। पर अब भूटान के आकर्षक अनुभव के बाद अनेक बौद्धिक भी ग्रॉस डोमेस्टिक हैपीनेस (समग्र घरेलू प्रसन्नता) का अध्ययन करने लगे हैं।

अपनी इस किताब के बारे में मार्टिन कहते हैं कि इसका पहला पेज ही सावधानी से वैज्ञानिक पद्धति के तहत विकसित है। इस किताब को इस तरह तैयार किया गया है, जो डिप्रेशन (अवसाद) और एंक्जाइटी (चिंता) को घटाएं और आत्मअनुशासन बढ़ायें। इस किताब में चर्चा है कि एक सप्ताह तक लगातार डायरी लिखें कि आज क्या अच्छा हुआ और क्यों? (वाट वेंट वेल टुडे एंड ह्वाइ). फिर खुद आत्ममूल्यांकन करें, इससे जीवन में बड़ा फर्क आयेगाअ।

पुस्तक में उल्लेख है कि संबंधों और अपनी उपलब्धियों को नकारना अवसाद से भरता है। इस किताब में कुछ अलग तथ्य भी हैं। जैसे परिवार में बच्चे को जन्म देने का निर्णय? शोध यह बताता है कि जिनके घर में बच्चे हैं, उनका जीवन, जिनके घर बच्चे नहीं हैं, की तुलना में कम संतुष्ट है।

सेलिगमैन की पुस्तक में खुशी या प्रसन्नता को तीन तरह से आंका गया है। अरस्तू की बुद्धिमता की धारणा (विजडम). नीत्शे की यथार्थ से रू-ब-रू होने की अवधारणा। साथ ही बेंथेमाइट की उपयोगितावाद से जुड़ी बातें। 

सेलिगमैन कहते हैं कि वह अरस्तू की इस बात से सहमत नहीं हैं कि मनुष्य के सभी कामों का प्रयास खुश होना होता है। अरस्तू ने इसके लिए शब्द गढ़ा (एवऊअटडठकअ) यूडामोनिया. इस शब्द का अंगरेजी तजरुमां है, प्रसन्नता (हैपीनेस). पर मान्यता है कि इसका बेहतर अनुवाद होगा, फ्लोरिसिंग (उत्फुल्लता).

सेलिगमैन का निष्कर्ष है कि खुश होने के लिए गुड कैरेक्टर (अच्छा चरित्र) चाहिए। वह पाजिटिव साइकोलोजी (सकारात्मक मनोविज्ञान) को खुश रहने के लिए एक आवश्यक विधा मानते हैं। अमेरिका में सेलिगमैन के भारी अनुयायी हैं। दुनिया के स्कूलों और विश्वविद्यालयों में, उनके बताये तरकीबों को लोग खुश होने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। उनकी टीम ने अमेरिकी सेना की कार्यरत टुकड़ियों की खुशी या मूड के अध्ययन के लिए भी एक अध्ययन पद्धति विकसित की है, जो हर वर्ष अमेरिकी सेना प्रयोग में लाती है।

इन अध्ययनों-सर्वेक्षणों से खुशी, सुख या प्रसन्नता को लेकर विकसित पारंपरिक अवधारणाओं को चोट पहुंची है। यदि खुशी का रिश्ता आर्थिक संपन्नता, भोग की चीजों के उपभोग, भव्य आलिशान महल, प्रचुर धन संपदा या अन्य भौतिक चीजों से होता, तो आज दुनिया के सबसे आगे बढ़े देश (लंबे समय से विकसित), सबसे खुशहाल होते। सुखी होते। पर ऐसा है नहीं! याद करिए, सबसे पहले मानव विकास सूचकांक पैमाना विकसित करने के लिए पाकिस्तान मूल के एक अर्थशास्त्री प्रो. मकबूल हक (बाद में वह पाकिस्तान के वित्तमंत्री भी बने) का योगदान।

इस प्रयास के कुछ ही समय बाद भूटान को केंद्र मानकर हैपीनेस इंडेक्स मापने का पैमाना भी निकला, खुशहाल देशों का सूचकांक। अगर भौतिक विकास या धन-संपदा की प्रचुरता ही खुश या सुखी होने का पैमाना होता, तो इन दोनों सूचियों में एक ही क्रम के नाम होते। पर विसंगति देखिए कि गरीब, फटेहाल मुल्क खुशहाल देशों में हैं और अमीर देश, खुशहाल सूचकांक में सबसे नीचे हैं।

खुशहाली पर यह सर्वेक्षण पढ़कर लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की भव्य पुस्तक दुकान में खरीदी किताब (29.09.11, लंदन) याद आयी। पुस्तक का नाम है, हैपीनेस। यह इस पुस्तक का नया संस्करण है। 2011 में पेंग्विन द्वारा प्रकाशित। इसका पहला संस्करण 2005 में आया। पुस्तक के लेखक हैं, मशहूर अर्थशास्त्री रिचर्ड लेयर्ड। लेखक के नाम के ऊपर अंगरेजी में एक पंक्ति है। लेसन फ्राम ए न्यू साइंस (एक नये विज्ञान के संदेश)। पुस्तक कवर पर यह भी लिखा है कि इसमें प्रसन्नता के सात कारणों का भी उल्लेख है। मशहूर अखबार ऑब्जर्वर की एक टिप्पणी है। रीड एंड टेक हार्ट (पढ़िए और दिल में उतारिए)

लेखक दुनिया के जाने-माने अर्थशास्त्री हैं। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर। उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में सेंटर फार इकोनॉमिक्स परफारमेंस (आर्थिक प्रगति अध्ययन केंद्र) की नींव डाली। सन् 2000 से वह हाउस आफ लार्ड के सदस्य हैं। वह मूलत: अर्थशास्त्री हैं। पर प्रसन्नता या सुख, उनके अध्ययन का मूल विषय है।

वह मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र और न्यूरोसाइंस को मिलाकर इस विषय का अध्ययन करते हैं। ब्रिटेन के संदर्भ में उन्होंने बेरोजगारी और विषमता पर गहराई से काम किया, उनके अध्ययन की बड़ी चर्चा हुई। इनके अध्ययन ने ब्रिटेन सरकार की बेरोजगारी नीति में मौलिक बदलाव के लिए रास्ता प्रशस्त किया। रिचर्ड लेयर्ड भी अपने अध्ययन के बाद मानते हैं कि यह आवश्यक नहीं है कि समाज की प्रसन्नता या खुशी का रिश्ता उसकी आय से हो।

पुस्तक के पहले संस्करण (जुलाई 2004) की प्रस्तावना में उन्होंने उल्लेख किया कि मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, मस्तिष्क विज्ञान (ब्रेन साइंस), समाजशास्त्र और दर्शनशास्त्र को मिलाकर ही जीवन के बारे में एक नयी दृष्टि विकसित हो सकती है। जीवन के लिए कौन सी नीतियां तर्कसंगत हैं, इन्हें भी परखा जा सकता है? इस पुस्तक के प्रकाशन के छह वर्षो बाद पश्चिम में एक नये आंदोलन की शुरुआत हुई। द वेल बीइंग मूवमेंट्स (खुश होने के लिए आंदोलन). इसका गहरा असर पश्चिम के समाज पर है।

यह आंदोलन उफान पर है। पूरी दुनिया में नीति बनानेवाले यह सवाल पूछ रहे हैं, आत्ममंथन कर रहे हैं कि क्या संपदा-संचय ही खुशहाल होने, प्रसन्न होने, सुखी होने या समाज कल्याण को मापने के सही मापदंड हैं?

प्रसन्न होने के प्रभावी तत्व

2011 में अपनी पुस्तक के ताजा संस्करण में प्रो रिचर्ड कहते हैं, ब्रिटेन के समाज में हर स्तर पर अब यह बहस चल रही है। प्रो रिचर्ड मानते हैं कि टेक्नोलॉजीने खुश होने या प्रसन्न रहने के इस आंदोलन को अब एक नयी ताकत दी है। आज लोग आसानी से एकजुट होते हैं। पुस्तक कवर के अंत में एक बड़ा सवाल है। क्या आप खुश हैं? यह उल्लेखनीय है कि आज 100-50 वर्ष पहले की तुलना में लोग अधिक स्वस्थ हैं। सुंदर, साफ और हवादार घर हैं। गाड़ियां है। अच्छे खाद्य-पदार्थ, व्यंजन हैं। पहले से बेहतर छुट्टी मनाने के अवसर हैं। पर क्या हम उतने खुश-प्रसन्न हैं, जितने 50 वर्ष पहले थे?

इन सवालों को तलाशते हुए रिचर्ड लेयर्ड दर्शन की गहराई में उतरते हैं। अर्थशास्त्र की जड़ों को निहारते हैं। ताजातरीन (लेटेस्ट) मनोवैज्ञानिक शोधों और अनुभवों पर नजर डालते हैं। वह सवाल पूछते हैं कि खुश होने या प्रसन्न होने के मूल कारण क्या हैं? कौन से प्रभावी तत्व हैं? हमें कैसे अलग ढंग से जीना चाहिए, ताकि हम अधिक सुखी जीवन जी सकें? क्यों लोगों की मदद करने से खुशी होती है? क्या संपन्नता ही निर्णायक तत्व है? हम, एक दूसरे के मुकाबले (तुलनात्मक ढ़ंग से) कम या अधिक सफल होते हैं? हम किस तरह अपने बदलते मानस (मूड) को नियंत्रित कर सकते हैं? ऐसे अनेक सवालों से दरस-परस करते हैं। पुस्तक के एक अध्याय में चर्चित कवि मैथ्यू आरनाल्ड की एक कविता का हवाला है, जिसका हिंदी में आशय है :-

क्या यह मामूली चीज है,
धूप का आनंद उठाना,
बसंत के प्रकाश के बीच होना
प्रेम करना, सोचना और करना

हैपीनेस पुस्तक में एक अर्थशास्त्री (अंगरेजी कविता का भावांश) द्वारा सुख बताने के लिए उद्धृत इस कविता को पढ़ते हुए रवींद्रनाथ टैगोर याद आये। जीवन में लगातार कई दशकों तक उन्होंने रोज सूर्यास्त और सूर्योदय देखा। अकेले। चुपचाप। निहारते हुए, गुनते, नमन करते, प्रकृति की सोहबत में जीते। यूनान के एक दार्शनिक डायजिन का सुना एक प्रसंग याद आया। यूनान की सड़कों पर लेटा डायजिन धूप सेंक रहा था। उसी समय एक युवा चिंतक कुछ प्रश्न पूछने के लिए वहां आ खड़ा हुआ। उसकी छाया पड़ते ही डायजिन की नींद टूटी। डायजिन ने कहा, मत पूछो, मत बोलो। धूप के सुख में बाधा न डालो। इस क्षण-समय को जीने दो।

डूब कर। सब भूल कर। सिकंदर जब भारत जीत चुका, तो एक साधु को देखकर दिग्विजयी सम्राट को धक्का लगा। उसके चेहरे को देखकर दिग्विजयी सम्राट सिकंदर ने हीनता महसूस की। खुद को कमतर महसूस किया। क्या है इस इंसान के चेहरे पर, जो विश्व विजय के बाद भी मेरे पास नहीं है?

यह खुशी, प्रसन्नता, मुग्धता या यह बोध क्या चीज है, जिसे दुनिया तलाशती है? क्या प्रकृति इस खुशी की झलक देती है? या यह जीने की ताकत कहां से आती है? फिर अर्थशास्त्री रिचर्ड बताते हैं कि प्रसन्नता अंदर से ही आती है। हालांकि बिना अंदर के भी यह आ सकती है। यह हमारी परिस्थितियों पर निर्भर है। हमारे अंतर्कर्मो पर भी। एक कथन का उल्लेख है कि प्रसन्नता या दुख मनुष्य के टेंपरामेंट (मन:स्थिति) पर उतना ही निर्भर है, जितना भाग्य पर। इस पुस्तक में एक जगह एक कोट है कि खुश रहने के लिए जरूरी है कि हमेशा दूसरों कीअंत्येष्टि में श्मशान जायें। श्मशान जीवन के सच से आपको रू-ब-रू कराता है।

आर्थिक प्रगति के बाद भी इंसान बेचैन

अर्थशास्त्र मूलत: आर्थिक मामलों की पड़ताल का विषय है। पर मशहूर अर्थशास्त्री ‘खुशी’ जैसे गैर आर्थिक विषय पर क्यों बेचैनी से शोध कर रहे हैं? प्रख्यात अर्थशास्त्री कीनीश बोल्डिंग कहते हैं, अर्थशास्त्री कंप्यूटर की तरह होते हैं। उनको आप तथ्य बतायें, वे हालात बता देंगे। लेकिन मनुष्य मशीन नहीं है। अर्थशास्त्र का सारा दर्शन इसीलिए है कि वे मानव समूह को आर्थिक रूप से बेहतर बना सके। आज आर्थिक प्रगति के बाद भी इंसान बेचैन है। रिचर्ड अपनी पुस्तक में मदर टेरेसा को उद्धृत करते हैं।

वह बताते हैं, कुष्ठ रोग आज का सबसे बड़ा रोग नहीं है। न ही क्षय की बीमारी बड़ी है। पर ऐसे रोगों के साथ यह एहसास कि हम अनवांटेड (अनचाहे) हैं, अनकेयर्ड (ध्यान से वंचित), और डेजर्टेड (निर्वासित), अलग-थलग छोड़ दिये गये हैं, सबके द्वारा, समाज के द्वारा, अत्यंत पीड़ादायक है। यह दुनिया की नयी महामारी है।

यह सवाल आध्यात्म का नहीं है। राजपाट चलाने का भी प्रसंग नहीं है। अब्राहम लिंकन ने कहा था, अधिसंख्य लोग यदि अपने मस्तिष्क में तय करते हैं कि वे खुश हैं, तो उन्हें कोई दुखी नहीं कर सकता। रूजवेल्ट ने भी कहा, आपकी सहमति के बगैर कोई आपको हेय (कमतर) होने का एहसास नहीं करा सकता। इस पुस्तक में एक प्रयोग का भी उल्लेख है। एक समूह को कुछ दिनों तक ध्यान करा कर जांचा गया। दूसरे वैसे ही समूह को बगैर ध्यान के जांचा गया। आधुनिक मनोवैज्ञानिक यंत्रों से। निष्कर्ष निकला कि ध्यान करनेवाले समूह के लोग ज्यादा शांत, संतुष्ट और खुश हैं। पश्चिम के ये संदर्भ पढ़ते हुए गीता का प्रसंग याद आ गया। न दुख है, न सुख। न जय है, न पराजय। इस जीवन में ‘न दैन्यम, न पलायनम’ (न याचना की जरूरत है, न भागने की) ही ध्येय बने। समदृष्टि का विकसित होना ही शायद संतुष्टि का एहसास है। पर यह है बड़ा कठिन। इस भाव को पाना, सबके बस की बात भी नहीं। मिल भी जाये, तो बताना संभव नहीं। गूंगे के गुड़ जैसी स्थिति। स्त्रोत : प्रभात खबर

Sunday 23 September 2012

ज़िन्दगी खूबसूरत है!

महापुरुषों को हम उनके विशिष्ट गुणों के चलते मान सम्मान देते हैं, लेकिन एक बात पर आपने कभी गौर किया है? हादसे उनके जीवन का अनिवार्य हिस्सा हरदम रहे। दुख के झंझावात से घिरे रहकर उन्होंने कभी सृजन का, नए चिंतन का दामन नहीं छोड़ा और हम? हम क्यों ठहर जाते हैं एक छोटे से तनाव के, कष्ट के, संकट के आगे?

दौड़ता भागता जीवन किसी मोड़ पर रुक गया और लगने लगा — अब एक कदम भी आगे बढ़ाना न हो सकेगा, तब मन में आया है यह विचार बार-बार—सांसें ही गुजारनी हैं, ज़िन्दगी का आनंद तो जाता रहा। हालांकि ऐसा सोचना निराधार है। ऐसा होना सिर्फ जीवन की बहुरंगी फिल्म का मध्यांतर है, ‘द एंड’ नहीं। सिनेमाघर में फिल्म देखते हुए हम यकायक पाते हैं कि पीछे से आता प्रकाश थोड़ी देर के लिए ठहर गया और रील पर छपी चटख तसवीरें सामने फैले चांदी जैसे परदे पर उभरनी बंद हो गई हैं। यह वक्त होता है, ढाई-तीन घंटे की फिल्म के बीच थोड़ी देर सुस्ताने का। ऐसे ही जीवन में आता है मध्यांतर। थमी हुई ज़िन्दगी को नवजीवन देने की बात करने से पहले यह जानना जरूरी है कि जीवन दरअसल, है क्या! सचमुच यह एक पहेली है, जो कभी हंसाती है, कभी रुलाने में भी कसर नहीं छोड़ती, लेकिन हम भी क्या खूब आशिक हैं, जो इससे इश्क करना कभी नहीं छोड़ते। कितनी भी मुश्किल में। यही है जिजीविषा (Will to live)। जद्दोजहद (Struggle) ज़िन्दगी के लिए। सब कुछ सम रहे, हर मौका महज खुशी लेकर आए, तब भी तो ज़िन्दगी नीरस हो जाएगी। दुख, व्याधियां, बीमारियां, मुश्किलें — असल सहचर हैं। अक्सर दामन थाम लेती हैं। इनका हंसकर ही स्वागत करना चाहिए।

खैर, हम बात कर रहे थे नवजीवन की, एक नई ज़िन्दगी अपने व्यक्तित्व को दे देने की! तो जब कभी ऐसी जरूरत आ जाए तो क्या करना चाहिए? क्या दुख से घिरकर निढाल होना सही होगा या फिर उसका हिम्मत के साथ मुकाबला करना.. दुख में ही नएपन की नींव डाल लेना! यकीनन, आप कहेंगे कि दुख से दो-दो हाथ करना ही समझदारी है, पर कैसे..?

जीवन को उलझन मान लेने से कोई हल नहीं निकलता। क्यों, जीवन जीने की कला हम सीख ही लें। जान लें, वो अंदाज, जिससे ज़िन्दगी खूबसूरत हो जाती है.. खुशनुमा बन जाती है। सोचिए, ज़िन्दगी ऐसी खूबसूरत हो तो इसके बारे में बात करते वक्त किसका दिल न खिल उठेगा। हर आंख में तब खुशी की तसवीरें रंगत बिखेरती नजर आएंगी। ज़िन्दगी जीना अपने आप में एक कला है और ये कला तब और ज्यादा दिलकश (Fetching) हो जाती है, जब आप कलाकार की तरह ज़िन्दगी को महसूस करें। जीवन की सरगम अपनी धड़कनों की एक-एक आहट में सुनें।

एक सूक्ति है —साहित्य संगीत कला विहीन:, साक्षात पशु: पुच्छ विषाण हीन:। इसमें कहा गया है कि साहित्य, संगीत और कला से रहित व्यक्ति पशु की तरह ही है। हम ऐसे न बन जाएं, इसके लिए सृजनात्मकता की लहर से थके मन को लैस कर देना होगा। यूं, सृजन का तात्पर्य साहित्य, संगीत और कला से ही नहीं है। क्रिएशन, यानी कुछ जन्म देना। कुछ नया गढ़ना। कुछ अलहदा संजो लेना। जीवन में कला कितनी जरूरी है.. इसकी परख के लिए आइए एक पुराना प्रसंग दोहरा लेते हैं। राजकुमार सिद्धार्थ का विवाह कराने के लिए राजा शुद्धोधन यशोधरा के पिता दंडपाणि के पास गए। दंडपाणि एक सामान्य नागरिक ही थे। आज का जमाना होता तो कोई आम आदमी किसी राजा के बेटे से बेटी का विवाह करने का प्रस्ताव तुरंत स्वीकार कर लेता, लेकिन दंडपाणि ने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि सिद्धार्थ को पहले यह प्रमाणित करना होगा कि वे सुरुचिपूर्ण व्यक्ति हैं। कला, साहित्य और संगीत की समझ रखते हैं, तभी मैं अपनी कन्या का हाथ उनके हाथ में दूंगा। सिद्धार्थ को अपनी रुचियों को प्रमाणित करने के लिए उस समय नवासी प्रतियोगिता में हिस्सा लेना पड़ा था।

सोचने वाली बात है। हम सब अपना जीवन कला से विमुख होकर कैसे गुजार देते हैं? क्या हमें खुद को अच्छा, सुरुचिपूर्ण और खास साबित नहीं करना चाहिए? और यह बात खुद को खास करने तक ही सीमित नहीं है। जब तक जीवन में कला के लिए आदर भाव नहीं होगा, हम ज़िन्दगी की खूबसूरती को समझ ही नहीं पाएंगे। ऐसा भी नहीं है कि हर व्यक्ति को कलाकार हो जाना चाहिए और सभी कलाओं में पारंगत होने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए, लेकिन यह आवश्यक है कि कला-साहित्य और संगीत समेत विभिन्न सर्जनात्मक कलाओं के लिए मन में प्यास पैदा की जाए। उन्हें सराहने का भाव पैदा किया जाए।

हमारे लिए सवाल है..! क्या हमें कुदरत की हर धड़कन साफ-साफ सुनाई देती है? कोई गीत सुनते वक्त क्या हमारी आंखों में आंसू या होंठों पर हंसी के नग्मे छिड़ जाते हैं? कोई चित्र देखते समय हम मंत्रमुग्ध हो पाते हैं.. अगर ‘हां’ तो हमारे अंदर का कलाकार बचा हुआ है और ज़िन्दगी हमारे लिए प्यार का गीत है, लेकिन जवाब ‘न’ में हुआ तो बहुत गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। कहीं न कहीं हमारी ज़िन्दगी के रास्ते से कला का भाव भटक गया है। ये जरूरी है कि हम उसे सही रास्ते पर लौटा लाएं और ज़िन्दगी की हर धड़कन साफ-साफ सुनना सीख लें। हम ऐसा कर पाए तो जीवन की रंगत कुछ और ही होगी.. इसकी चमक कुछ और ही होगी।

हम बार-बार कहते हैं कि ज़िन्दगी जीना सबसे बड़ी कला है। ‘कला’ के रूप में रूढ़ माध्यम, विधाएं, शैलियां — इसी का हिस्सा हैं। कोई किताब पढ़ना, उसे समझना, उसके संदेशों को ग्रहण करना भी किसी कला से कम नहीं। यूं देखें तो हम सब कलाकार हैं। मकान बनाना, खाना पकाना, अच्छी तरह से ड्राइविंग करना, यातायात के नियमों का पालन करना, आपसी आचार व्यवहार — यह सब अनुशासन और नैतिकता के लिहाज से जितने जरूरी है, उतने ही जीवन को खूबसूरत बनाने के लिए भी आवश्यक हैं। इसी विचार के साथ लौटते हैं वहां, जहां से बात शुरू की थी तो फिर सामने आता है—डरा देने वाला, हमें ठहरने को मजबूर करने वाला दुख। कोई हादसा। एक संकट। कहीं भावनात्मकता के बोझ से दबी हमारी सकारात्मकता की चीख, लेकिन यहीं जरूरी है विचार—जीवन के आनंद से बड़ा और कुछ नहीं है।

मार्के की बात यही है कि हादसों से डरकर कभी सृजन (Creation) नहीं हो सकता। कलाओं के, मानवमात्र के, अपनी सबसे सच्ची दोस्त कुदरत के साथ न्याय नहीं किया जा सकता। सात्र्र कहते थे—‘मैं जब लिखता हूं तो निराशा के जाल में खूबसूरती पकड़ने की कोशिश करता हूं।’ सात्र्र की यह बात कितनी मौजू (Exist) है न! अब अगली बार, निराशा से जूझते हुए कुछ रचने की कोशिश कीजिएगा। यकीनन, खिल उठेंगे आप।

श्रीमद्भागवत में कहा गया है—स्मृतियों में लगातार दोहराया जाए तो बीता हुआ सुख भी दुख की प्रतीति देता है, ऐसे में दुख से पीड़ा के सिवा और कुछ नहीं मिलेगा। यह एक सत्य है और संदेश भी। बेहतर यही होता है कि हम संत्रास के कालेपन को पीछे धकेलकर आने वाली ज़िन्दगी का इस्तकबाल (स्वागत) करें। जोश के साथ जीवन के पीछे छूट गए उत्साह को आवाज दें। ज़िन्दगी दोगुने उत्साह के साथ बगलगीर होगी। कहते हुए—हां! तुम तो गुनगुना रहे हो, मुस्कुरा रहे हो, तुम में जीने का उत्साह बाकी है, फिर दुख परेशान कैसे कर सकता है?

बात थोड़ी आध्यात्मिक जरूर लगेगी, लेकिन गौर कीजिए तो बेहद सामान्य और उतनी ही विशिष्ट भी है। स्वयं को साक्षी मानकर अपने आसपास के लोगों के जीवन पर नज़र डालिए। कितना कष्ट सबकी ज़िन्दगियों में घुसपैठ किए हुए है। हमारे लिए जरूरी यह है कि हम बाकी लोगों को थोड़ी खुशी दे सकें, या फिर स्वयं किसी व्यर्थ पीड़ा में घिर जाएं? सृजन में तल्लीन होने की बात यहीं पर महत्वपूर्ण हो जाती है।

कितना कुछ बचा है सीखने के लिए, करने और आनंद उठाने की खातिर और हम हैं कि तनावों में घिरे जा रहे हैं। याद कीजिए, उरुग्वे के रचनाकार एडुआडरे गालेआनो को। लैटिन अमेरिकी लेखक गालेआनो को सैन्य तानाशाही के अत्याचारों का शिकार होकर देश छोड़ने पर विवश होना पड़ा, लेकिन क्या वे ठहर गए? बिल्कुल नहीं! इसके विपरीत तथ्य तो यह है कि जब गालेआनो को दबाने की कोशिश की गई तो वे और मजबूत होकर उभरे। वे कहते हैं—जब भी कोई लिखता है तो वह औरों के साथ कुछ बांटने की जरूरत ही पूरी कर रहा होता है। यह लिखना अत्याचार के खिलाफ और अन्याय पर जीत के सुखद एहसास को साझा करने के लिए होता है। यह अपने और दूसरों के अकेले पड़ जाने के एहसास को खत्म करने के लिए होता है।’ कहा जा सकता है कि राम-कृष्ण, निराला, गालेआनो या ऐसे और लोग महापुरुष हैं, रचनाकार हैं, इसलिए उनसे आम आदमी की तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन ऐसी परिभाषा दरअसल, पलायनवादी (Escapist) होगी। हमने पहाड़ की छाती चीरकर दरिया निकाला है। दरिया की राह मोड़कर फसलों के लिए पानी लाए हैं। यह सब हमारे पुरखों ने किया है तो हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते?

शायर इरशाद कामिल जब सदा देते हैं—‘सियाह से सफेद हो गई ज़िन्दगी / आम रिसाले से पुराणवेद हो गई ज़िन्दगी ..’ तो यह बदलाव का ही उदाहरण है। वे मानते हैं कि अगर आपको देखना आता है तो जिंदगी हर हाल में खूबसूरत है और देखना ही क्यों, महसूस करना भी आना चाहिए। बात यही है कि हर निराशा को मुंहतोड़ जवाब देने का एकमात्र तरीका है—सृजन। चाहे वह संगीत का हो, साहित्य हो, कोई और भी कला हो..। खुद में रोते बच्चों को हंसाने की कला जगाइए। जगा दीजिए, किसी अनपढ़ व्यक्ति में पढ़ाई-लिखाई की धुन। वह हंसेगा और देखिएगा—उसकी खिलखिलाहट से आपकी तकलीफ भी दूर भाग जाएगी। ऐसा यकीनन होगा। हर मध्यांतर को अपने लिए नई शुरुआत मानते हुए निदा फाजली के इस शेर के सहारे संकल्प लीजिए—'गुजरो जो बाग से तो दुआ मांगते चलो, जिसमें खिले हैं फूल, वो डाली हरी रहे।' चण्डीदत्त शुक्ल | स्त्रोत : दैनिक भास्कर, 12.09.2012